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Thursday, 29 September 2011

दरमियाँ


पास में जो थें भला, उनसे कहे कैसे
फांसलें थें दरमियाँ, कुछ आसमाँ जैसे

चाँद-तारों की कहानी गुनगुनाऊं तो
फेरतें हैं मूँह जो, वो इंसान हैं कैसें

राह मैं ढूँढू, के ढूँढू हमसफ़र कोई
मंजिलें हैं कर रही, बातें इशारों से

गोद में अपने सवालों को लिए बैठे
बैठे हैं लम्हें इस कदर, हड़ताल हो जैसे

हाँ पुरानी हैं ग़ज़ल माना हमारी पर
ताज़ा ही तो हैं सूर हमारा, दर्द हैं जैसे





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